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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।


दो शब्द


साखियां यों तो सभी संतों की निराली हैं। एक-एक शब्द उनका अन्तर पर चोट करता है। पर कबीर साहब की साखियों का तो और भी निराला रंग है। वे हमारे हृदय पर बड़ी गहरी छाप छोड़ जाती हैं। सीधे-सादे अनपढ़ आदमी पर तो और भी अधिक ये साखियां अपना अमिट प्रभाव शायद इसलिए डाल जाती हैं कि उन्हीं की तरह एक अनपढ़ संत ने सहज-सहज जीवन को पहचाना था और उसके साथ एकाकार हो गया था। दूसरों के मुख से सुनी उसने कोई बात नहीं कही, अपनी आंखों-देखी ही कही। जो कुछ भी कहा अनूठा कहा, किसी का जूठा नहीं।

कबीर की वाणी गहरी और ऊंचे घाट की है। सत्य को उसने अपने आमने-सामने देखा और दूसरों को भी दिखाने का बड़े प्रेम से जतन किया। सत्य की राह में जो भी आड़े आया, उसे उसने बख्शा नहीं। बाहरी कर्मकाण्ड, जात-पांत और छूत-छात को उसने झकझोर डाला। मिथ्याचार उसमें कहीं भी जगह नहीं पा सका।

साखियां यानी दोहों में तो जैसे कबीर ने गागर में सागर भर दिया है। लगता है कि जैसे बूंद में सिन्धु लहरा रहा है।

इस संकलन में पचीस अंगों अर्थात् विषयों के अनुसार कबीर साहब की सरल सुबोध साखियों को लिया गया है। बुद्धि का गर्व रखनेवालों के लिए कबीर की बानी, उनकी साखियां, भले ही दुर्बोध हों, मगर सुबोध हैं वे उन-जैसों के लिए जो दुर्बोध जीवन नहीं जीना चाहते। उनके लिए तो कबीर की साखी मानो अन्धे की लकड़ी है। यथामति साखियों के साथ उनका अर्थ भी कर दिया है।

- वियोगी हरि

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